विवाह आदि संस्कारों में और साधारणतया सभी धार्मिक कामों में गोत्र
प्रवर और शाखा आदि की आवश्यकता हुआ करती है। इसीलिए उन सभी का संक्षिप्त
विवरण आवश्यक हैं। समान गोत्र प्रवर की कन्या के साथ विवाह करने से जो
संतान होती है वह चाण्डाल श्रेणी में गिनी जानी चाहिए। जैसा कि यमस्मृति का
वचन हैं कि:
आरूढपतितापत्यं ब्राह्मण्यां यश्चशूद्रज:।
सगोत्रोढासुतश्चैव चाण्डालास्त्रायईरिता:॥
‘संन्यासी का पुत्र, ब्राह्मणी स्त्री से शूद्र का पुत्र और समान गोत्र वाली कन्या से विवाह कर के जन्माया पुत्र, ये तीनों चाण्डाल कहाते हैं’ पर देखते हैं कि सभी देशों के ब्राह्मण आदि समाजों में ऐसा बहुधा होता है। यहाँ तक कि बहुतों को तो गोत्र का ज्ञान भी नहीं होता। प्रवर, शाखा आदि की बात ही दूर रहे। और विवाह गोत्र भिन्न रहने पर भी यदि प्रवरों की एकता हो जावे तो भी नहीं होना चाहिए।
गोत्र नाम है कुल, संतति, वंश, वर्ग का। यद्यपि पाणिनीय सूत्रों के अनुसार 'अपत्यं पौत्राप्रभृतिगोत्रम्' 4-1-162, पौत्रा आदि वंशजों को गोत्र कहते हैं। तथापि वह सिर्फ व्याकरण के लिए संकेत है। इसी प्रकार यद्यपि वंश या संतति को ही गोत्र कहते हैं तथापि विवाह आदि में जिस गोत्र का विचार है वह भी सांकेतिक ही है और सिर्फ विश्वामित्रा, जमदग्नि, भरद्वाज, गौतम, अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप और अगस्त्य, इन आठ ऋषियों या इनके वंशज ऋषियों की ही गोत्र संज्ञा है। जैसाकि बोधयन के महाप्रवराध्याय में लिखा है कि :
विश्वामित्रो जमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गौतम:।
अत्रिवर्सष्ठि: कश्यपइत्येतेसप्तर्षय:॥ सप्तानामृषी-
णामगस्त्याष्टमानां यदपत्यं तदोत्रामित्युच्यते॥
इस तरह आठ ऋषियों की वंश-परम्परा में जितने ऋषि (वेदमन्त्र द्रष्टा) आ गए वे सभी गोत्र कहलाते हैं। और आजकल ब्राह्मणों में जितने गोत्र मिलते हैं वह उन्हीं के अन्तर्गत है। सिर्फ भृगु, अंगिरा के वंशवाले ही उनके सिवाय और हैं जिन ऋषियों के नाम से भी गोत्र व्यवहार होता है। इस प्रकार कुल दस ऋषि मूल में है। इस प्रकार देखा जाता है कि इन दसों के वंशज ऋषि लाखों हो गए होंगे और उतने ही गोत्र भी होने चाहिए। तथापि इस समय भारत में तो उतने गोत्रों का पता है नहीं। प्राय: 80 या 100 गोत्र मिलते हैं।
जो गोत्र के नाम से ऋषि आए हैं वही प्रवर भी कहाते हैं। ऋषि का अर्थ है वेदों के मंत्रों को समाधि द्वारा जाननेवाला। इस प्रकार प्रवर का अर्थ हुआ कि उन मन्त्रद्रष्टा ऋषियों में जो श्रेष्ठ हो। प्रवर का एक और भी अर्थ है। यज्ञ के समय अधवर्यु या होता के द्वारा ऋषियों का नाम ले कर अग्नि की प्रार्थना की जाती है। उस प्रार्थना का अभिप्राय यह है कि जैसे अमुक-अमुक ऋषि लोग बड़े ही प्रतापी और योग्य थे। अतएव उनके हवन को देवताओं ने स्वीकार किया। उसी प्रकार, हे अग्निदेव, यह यजमान भी उन्हीं का वंशज होने के नाते हवन करने योग्य है। इस प्रकार जिन ऋषियों का नाम लिया जाता है वही प्रवर कहलाते हैं। यह प्रवर किसी गोत्र के एक, किसी के दो, किसी के तीन और किसी के पाँच तक होते हैं न तो चार प्रवर किसी गोत्र के होते हैं और न पाँच से अधिक। यही परम्परा चली आती हैं। पर, मालूम नहीं कि ऐसा नियम क्यों हैं? ऐसा ही आपस्तंब आदि का वचन लिखा है। हाँ, यह अवश्य है कि किसी ऋषि के मत से सभी गोत्रों के तीन प्रवर होते हैं। जैसा कि :
त्रीन्वृणीते मंत्राकृतोवृणीते॥ 7॥
अथैकेषामेकं वृणीते द्वौवृणीते त्रीन्वृणीते न चतुरोवृणीते न
पंचातिवृणीते॥ 8॥
जो दस गोत्र कर्ता ऋषि मूल में बताए गए हैं, उनके वंश का विस्तार बहुत हुआ और आगे चल कर जहाँ-जहाँ से एक-एक वंश की शाखा अलग होती गई वहाँ से उसी शाखा का नाम गण कहलाता है और उस शाखा के आदि ऋषि के नाम से ही वह गण बोला जाता है। इस प्रकार उन दस ऋषियों के सैकड़ों गण हो गए हैं और साधारणतया यह नियम है कि गणों के भीतर जितने गोत्र हैं न तो उनका अपने-अपने गण-भर में किसी दूसरे के साथ विवाह होता है और न एक मूल ऋषि के भीतर जितने गण हैं उनका भी परस्पर विवाह हो सकता है। क्योंकि सबका मूल ऋषि एक ही है। हाँ, भृगु और अंगिरा के जितने गण हैं उनमें हरेक का अपने गण के भीतर तो विवाह नहीं हो सकता पर, गण से बाहर दूसरे गण में तभी विवाह होगा जबकि दोनों के प्रवर एक न हो जावे। प्रवर एक होने का भी यह अर्थ नहीं कि दोनों के 3 या 5 जितने प्रवर हैं सब एक ही रहें। बल्कि यदि दोनों के तीन ही प्रवर हों और उनके दो ऋषि दोनों में हों तो यह प्रवर एक ही कहलाएगा। इसी प्रकार यदि पाँच प्रवर हों तो तीन के एक होने से ही एक होगा। सारांश, आधे से अधिक ऋषि यदि एक हों तो समान प्रवर हो जाने से विवाह नहीं होना चाहिए। जैसा कि बोधयन ने लिखा है :
द्वयार्षेयसन्निपातेऽविवाहस्त्रयार्षेयाणांत्रयार्षेयसन्निपातेऽविवाह:प×चार्षेयाणामसमानप्रवरैर्विवाह:॥
इसीलिए बोधयन आदि ने गोत्र का जो सांकेतिक अर्थ किया है उसमें भृगु और अंगिरा को न कह कर आठ ही को गिनाया है, नहीं तो जैसे अत्रि आदि के गणों में जहाँ तक एक गोत्र कर्ता ऋषि उनके किसी भी गोत्र के प्रवरों में विद्यमान रहे वह वास्तव में एक ही गोत्र कहलाते हैं, चाहे व्यवहार के लिए भिन्न ही क्यों न हों और चाहे उनके प्रवर तीन हों या पाँच। उसी प्रकार भृगु और अंगिरा के भी गणों के प्रवरों में सिर्फ एक ही ऋषि के समान होने से ही उनके तीन और पाँच प्रवरवाले गोत्रों का विवाह नहीं हो पाता। मगर अब हो सकता है। क्योंकि एक ऋषि की समानता का नियम सिर्फ आठ ही ऋषियों के लिए है, न कि भृगु और अंगिरा के लिए भी। जैसा कि -
एक एव ऋषिर्यावत्प्रवरेष्वनुवर्त्तते।
तावत्समानगोत्रत्वमन्यत्रांगिरसोभृगो:॥
भृगु और अंगिरा के वंशजों के जो गण है उसमें कुछ तो गोत्र के उन आठ ऋषियों के ही गण में आ गए हैं और कुछ अलग हैं। इस प्रकार भृगु और केवल भृगु एवं अंगिरा और केवल अंगिरा इस तरह के उनके दो-दो विभाग हो गए हैं। भृगु के 7 गणों में वत्स, विद और आर्ष्टिषेण ये तीन तो जमदग्नि के भीतर आ गए। शेष यस्क, मिवयुव, वैन्य और शुनक ये केवल भार्गव कहाते हैं। इसी प्रकार अंगिरा के गौतम, भारद्वाज और केवल आंगिरस ये तीन गण हैं। उनमें दो तो आठ के भीतर ही है। गौतम के 10 गण हैं, अयास्य, शरद्वन्त, कौमण्ड, दीर्घतमस, औशनस, करेणुपाल, रहूगण, सोमराजक, वामदेव, बृहदुक्थ। इसी प्रकार भारद्वाज के चार हैं, भारद्वाज, गर्ग, रौक्षायण, कपि। केवलांगिरस के पाँच हैं, हरित, कण्व, रथीतर, मुद्गल, विष्णुबृद्ध। इस तरह सिर्फ भृगु और अंगिरा के ही 23 गण हो गए। इससे स्पष्ट है कि भरद्वाज या भारद्वाज गोत्र का गर्ग या गार्ग्य के साथ विवाह नहीं हो सकता। क्योंकि उनका गण एक ही है।
अत्रि के चार गण हैं, पूर्वात्रोय, वाद्भुतक, गविष्ठिर, मुद्गल।
विश्वामित्र के दस हैं - कुशिक, रोहित, रौक्ष, कामकायन, अज्ञ, अघमर्षण, पूरण, इंद्रकौशिक, धनंजय, कत। धनंजय और कौशिक का परस्पर विवाह नहीं हो सकता।
कश्यप के पाँच हैं - कश्यप, निध्रुव, रेभ, शांडिल्य, लौगाक्षि। शांडिल्य, कश्यप, लौगाक्षि का परस्पर विवाह असंभव है।
वसिष्ठ के पाँच हैं - वसिष्ठ, कुंडिन, उपमन्यु, पराशर और जातूकर्ण्य। वसिष्ठ और पराशर आदि का परस्पर विवाह ठीक नहीं है।
अगस्त्य का कोई अन्तर्गण नहीं है। इस प्रकार कुल 51 गण हैं। किसी-किसी के मत से कुछ कम या अधिक भी है।
कोई-कोई गौत्र द्वयामुष्यायण कहलाते हैं, जैसे सांकृति या साकृत्य और लौगाक्षि आदि। इसका अर्थ यह है कि इन ऋषियों का सम्बन्ध दो गोत्रों से हैं। ये ऋषि किसी कारण से दोनों गोत्रों से सम्बन्ध रखते हैं, न कि एक छोड़ कर दूसरे से मिल गए। इसीलिए सांकृति का वसिष्ठ के साथ और लौगाक्षि का भी वसिष्ठ के साथ, एवं लौगाक्षि का और सांकृति का भी परस्पर विवाह नहीं होगा। क्योंकि लौगाक्षि और सांकृति दोनों वसिष्ठ गोत्र में गए और साथ ही, सांकृति का केवलांगिरस के गण में और लौगाक्षि का कश्यप के गण में जन्म हैं।
भरद्वाज, भारद्वाज, कश्यप, काश्यप, गर्ग, गार्ग्य, भृगु, भार्गव ये अलग-अलग गोत्र हैं, न कि कश्यप और काश्यप आदि एक ही है। परंतु विवाह तो फिर भी कश्यप काश्यप आदि का परस्पर नहीं हो सकता। कारण, मूल ऋषि एक ही हैं। इसी प्रकार यद्यपि भृगु के वंश में ही वत्स हुए, तथापि वत्सगोत्र अलग ही है। विश्वामित्र के प्रकरण में इंद्र कौशिक गोत्र है जो कौशिक से भिन्न ही है। इसी प्रकार धृत गोत्र भी उसी में हैं। मगर कहीं-कहीं सर्यूपारियों में धृत कौशिक को एक ही गोत्र मान कर व्यवहार करते हैं। यह भूल है। इसी प्रकार गर्दभीमुख नाम के एक ऋषि कश्यप के गण में हैं और शांडिल्य भी। पर इसका अर्थ न समझ लोगों ने गर्दभी मुख का कल्पित अर्थ कर डाला है और श्रीमुख नाम का एक दूसरा गोत्र भी मान रखा है। उनके विचार से शांडिल्य गोत्र के ही ये दो भेद हैं। मगर बात यह नहीं है। यह तो परस्पसर नीच-ऊँच के भावों का फल है। श्रीमुख कोई गोत्रकार ऋषि नहीं हैं। हाँ गर्दभीमुख है। पर शांडिल्य से भिन्न है। फिर भी, कश्यप के अन्तर्गत होने से दोनों का परस्पर विवाह नहीं हो सकता। कोई-कोई इंद्र और कौशिक ये दो गोत्र मानते हैं और धृत को घृत पढ़ते हैं। पाठ-भेद हो सकता है। पर, हरिवंश के सातवें अध्याय में धृत ही मिलता है और उनको धर्मभृत भी कहा है। इससे धृत पाठ ही अधिक माननीय है।
गोत्रों के प्रवर के सिवाय वेद, शाखा, सूत्र पाद, सिखा और देवता का भी विचार है। ऐसा संप्रदाय अभी तक बराबर चला आता है। इनमें से वेद का अभिप्राय यह है कि उस गोत्र का ऋषि ने उसी वेद के पठन-पाठन या प्रचार में विशेष ध्यान दिया और उस गोत्रवाले प्रधानतया उसी वेद का अध्ययन और उसमें कहे गए कर्मों का अनुष्ठान करते आए। इसीलिए किसी का गोत्र यजुर्वेद है तो किसी का सामवेद और किसी का ऋग्वेद है, तो किसी का अथर्ववेद। उत्तर के देशों में प्राय: साम और यजुर्वेद का ही प्रचार था। किसी-किसी का ही अथर्ववेद मिलता है। अब आगे चल कर लोग संपूर्णतया एक वेद भी पढ़ न सके, किंतु उसकी अनेक शाखाओं में से सिर्फ एक ही, तो फिर उन गोत्रों के लोगों ने शाखा का व्यवहार करना शुरू किया। सूत्रों का तो सिर्फ यही अर्थ हैं कि उन वेदों की उन-उन शाखाओं में कहे गए कर्मों की विधि और उनके अंगों के क्रम आदि के विचार के लिए ऋषियों ने जिन-जिन श्रौत या गृह्य सूत्रों का निर्माण किया है, उन्हीं के अनुसार विभिन्न गोत्रों की पद्धतियाँ तैयार की गई है और उन्हीं के अनुसार कर्म-कलाप होते हैं। हरेक वेदों के ये सूत्र विभिन्न ऋषियों द्वारा बनाए गए हैं। जैसे यजुर्वेद का कात्यायन ने बनाया है, सामवेद का गोभिल ने, ऋग्वेद का आश्वलायन ने और अथर्ववेद का कौशिक ने। और भी ऋषि हैं जिनके सूत्र वेदों की शाखाओं पर हैं। हरेक ऋषि ने अपनी ही शाखा का सूत्र ग्रन्थ बनाया है। हरेक वेद या उसकी शाखा के पढ़नेवाले किसी विशेष देवता की आराधना करते थे। वही उनके देवता कहे गए। इसी तरह तुरंत पहचान के लिए उनके बाहरी व्यवहार में भी कुछ अन्तर रखा जाता था। जैसे कोई शिखा में जो ग्रंथि देता वह बाईं तरफ घुमा कर और कोई दाहिनी तरफ। इसी प्रकार पूजा के समय प्रथम कोई बायाँ पाँव धोता या धुलाता था और कोई दाहिना। बस वही व्यवहार अब तक कहने मात्र को रह गया है और वही पाद कहलाता है। प्राय: यही नियम था कि सामवेदियों की बाईं शिखा और बायाँ ही पाद और विष्णु देवता हों। इसी प्रकार यजुर्वेदियों की दाहिनी शिखा, दाहिना पाद और शिव देवता। कहीं-कहीं शिखा और पाद में शायद उलट-पलट है। परंतु वह हमारे जानते काल पा कर भूल से बदल गया होगा। क्योंकि जब और बातों में नियम हैं तो यहाँ भी एक ही नियम लागू होना चाहिए। इसी तरह सामवेदियों की कौथुमी शाखा और गोभिल सूत्र एवं यजुर्वेदियों की माध्यंदिनीय शाखा और कात्यायन सूत्र हैं। चारों वेदों के चार उपवेद भी है और उनका भी व्यवहार पाया जाता है। यजुर्वेद का धानुर्वेद, ऋग्वेद का आयुर्वेद, सामवेद का गांधर्व वेद और अथर्ववेद का अर्थवेद वा अर्थशास्त्र है।
किस गोत्र का कौन वेद हैं, इसमें इस समय बड़ी गड़बड़ी है, कारण व्यवहार और संप्रदाय हर प्रदेश में कुछ न कुछ बदल गए हैं। कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों में पाँच गोत्रों का और कहीं-कहीं छह का सामवेद बताया है। वे पाँच कश्यप, काश्यप, वत्स, शांडिल्य और धनंजय हैं और छठां कौशिक हैं। परंतु इसके विपरीत मैथिलों में सिर्फ एक शांडिल्य का ही सामवेद लिखा है शेष गोत्रों का यजुर्वेद ही। हालाँकि उनकी एक वंशावली में, जो पिलखबाड़ ग्राम के पंजीकार श्री जयनाथ शर्मा की लिखी है, लिखा है कि :
कश्यपौ वत्सशांडिल्यौ कौशिकश्च धनंजय:।
षडेते सामगा विप्रा: शेषा वाजसनेयनि:॥
इससे पूर्व के छह गोत्र सामवेदी सिद्ध होते हैं। कान्यकुब्ज वंशावली में लिखते हैं कि पाँच ही सामवेदी हैं, कौशिक नहीं :
कश्यप: काश्यपो वत्स: शांडिल्यश्च धनंजय:।
पंचैते साम गायन्ति यजुरधयायिनोऽपरे॥
यह बात असंभव-सी भी मालूम होती है कि सिर्फ शांडिल्य ने ही सामवेद का प्रचार किया और दूसरे किसी भी ऋषि ने नहीं। इससे पाँच या छह गोत्रों का ही सामवेद मानना ठीक हैं। इसलिए त्यागी, पश्चिम, जमींदार या भूमिहार आदि अयाचक ब्राह्मणों में भी इसी के अनुसार संस्कार आदि और प्रचार होना चाहिए। गौड़, जिझौतिया वगैरह में भी इसी का प्रचार है।
आजकल एक गोत्र पाया जाता है जिसका उल्लेख पुराने ग्रन्थों में कहीं नहीं मिलता। वह है कविस्त, काविस्त अथवा कावित्स। अत्रि के एक गण के ऋषि का नाम गविष्ठिर है। संभव है इसी का विपर्याय हो गया हो। लेकिन प्रवर में भेद है।
प्रवरों के विषय में बड़ा मतभेद और वाद-विवाद है। एक प्रवर तो सिर्फ चार प्रचलित गोत्रों में है। वसिष्ठ का वासिष्ठ शुनक का शौनक, मित्रायुव का बाधय्रश्व और अगस्त्य का आगस्त्य। कश्यप का ही सिर्फ दो प्रवर है, देवल और असित। मगर इनके भी तीन प्रवर लिखे हैं। इसी प्रकार पाँच प्रवर गर्ग, सावर्णि, वत्स, भार्गव, भरद्वाज, भारद्वाज, जमदग्नि और गौतम के हैं। मगर तीन प्रवर भी इनके लिखे हैं। हरेक गोत्रों के प्रवरों की जितनी संख्या हो उतनी ग्रंथि जनेऊ में दी जाती है।
कुछ प्रसिद्ध गोत्रों के प्रवर आदि नीचे लिखे हैं :
(1) कश्यप,
(2) काश्यप के काश्यप, असित, देवल अथवा काश्यप, आवत्सार, नैधु्रव तीन प्रवर हैं। इस गोत्र के ब्राह्मण ये हैं - जैथरिया, किनवार, बरुवार, दन्सवार, मनेरिया, कुढ़नियाँ, नोनहुलिया, तटिहा, कोलहा, करेमुवा, भदैनी चौधरी, त्रिफला पांडे, परहापै, सहस्रामै, दीक्षित, जुझौतिया, बवनडीहा, मौवार, दघिअरे, मररें, सिरियार, धौलानी, डुमरैत, भूपाली आदि।
(3) पराशर के वसिष्ठ, शक्ति, पराशर तीन प्रवर हैं। इस गोत्र के ब्राह्मण एकसरिया, सहदौलिया, सुरगणे हस्तगामे आदि है।
(4) वसिष्ठ के वसिष्ठ, शक्ति, पराशर अथवा वसिष्ठ, भरद्वसु, इंद्र प्रमद ये तीन प्रवर हैं। ये ब्राह्मण कस्तुवार, डरवलिया, मार्जनी मिश्र आदि हैं। कोई वसिष्ठ, अत्रि, संस्कृति प्रवर मानते हैं।
(5) शांडिल्य के शांडिल्य, असित, देवल तीन प्रवर हैं। दिघवैत, कुसुमी-तिवारी, नैनजोरा, रमैयापांडे, कोदरिए, अनरिए, कोराँचे, चिकसौरिया, करमहे, ब्रह्मपुरिए, पहितीपुर पांडे, बटाने, सिहोगिया आदि इस गोत्र के ब्राह्मण हैं।
(6) भरद्वाज,
(7) भारद्वाज के आंगिरस, बार्हस्पत्य, भारद्वाज अथवा आंगिरस, गार्ग्य, शैन्य तीन प्रवर हैं। दुमटिकार, जठरवार, हीरापुरी पांडे, बेलौंचे, अमवरिया, चकवार, सोनपखरिया, मचैयांपांडे, मनछिया आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।
(8) गर्ग।
(9) गार्ग्य के आंगिरस, गार्ग्य, शैन्य तीन अथवा धृत, कौशिक मांडव्य, अथर्व, वैशंपायन पाँच प्रवर हैं। मामखोर के शुक्ल, बसमैत, नगवाशुक्ल, गर्ग आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।
(10) सावर्ण्य के भार्गव, च्यवन, आप्नवान, और्व, जामदग्न्य पाँच, या सावर्ण्य, पुलस्त्य, पुलह तीन प्रवर हैं। पनचोभे, सवर्णियाँ, टिकरा पांडे, अरापै बेमुवार आदि इस गोत्र के हैं।
(11) वत्स के भार्गव, च्यवन, आप्नवान, और्व, जामदग्न्य पाँच, या भार्गव, च्यवन, आप्नवान तीन प्रवर हैं। दोनवार, गानामिश्र, सोनभदरिया, बगौछिया, जलैवार, शमसेरिया, हथौरिया, गगटिकैत आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।
(12) गौतम के आंगिरस बार्हिस्पत्य, भारद्वाज या अंगिरा, वसिष्ठ, गार्हपत्य, तीन, या अंगिरा, उतथ्य, गौतम, उशिज, कक्षीवान पाँच प्रवर हैं। पिपरामिश्र, गौतमिया, करमाई, सुरौरे, बड़रमियाँ दात्यायन, वात्स्यायन आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।
(13) भार्गव के भार्गव, च्यवन, आप्नवान, तीन या भार्गव, च्यवन आप्नवन, और्व, जायदग्न्य, पाँच प्रवर हैं, भृगुवंश, असरिया, कोठहा आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।
(14) सांकृति के सांकृति, सांख्यायन, किल, या शक्ति, गौरुवीत, संस्कृति या आंगिरस, गौरुवीत, संस्कृति तीन प्रवर हैं। सकरवार, मलैयांपांडे फतूहाबादी मिश्र आदि इन गोत्र के ब्राह्मण हैं।
(15) कौशिक के कौशिक, अत्रि, जमदग्नि, या विश्वामित्रा, अघमर्षण, कौशिक तीन प्रवर हैं। कुसौझिया, टेकार के पांडे, नेकतीवार आदि इस गोत्र के ब्राह्मण हैं।
(16) कात्यायन के कात्यायन, विश्वामित्र, किल या कात्यायन, विष्णु, अंगिरा तीन प्रवर हैं। वदर्का मिश्र, लमगोड़िया तिवारी, श्रीकांतपुर के पांडे आदि इस गोत्र के ब्राह्मण हैं।
(17) विष्णुवृद्ध के अंगिरा, त्रासदस्यु, पुरुकुत्स तीन प्रवर हैं। इस गोत्र के कुथवैत आदि ब्राह्मण हैं।
(18) आत्रेय।
(19) कृष्णात्रेय के आत्रेय, आर्चनानस, श्यावाश्व तीन प्रवर हैं। मैरियापांडे, पूले, इनरवार इस गोत्र के ब्राह्मण हैं।
(20) कौंडिन्य के आस्तीक, कौशिक, कौंडिन्य या मैत्रावरुण वासिष्ठ, कौंडिन्य तीन प्रवर हैं। इनका अथर्ववेद भी है। अथर्व विजलपुरिया आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।
(21) मौनस के मौनस, भार्गव, वीतहव्य (वेधास) तीन प्रवर हैं।
(22) कपिल के अंगिरा, भारद्वाज, कपिल तीन प्रवर हैं।
इस गोत्र के ब्राह्मण जसरायन आदि हैं।
(23) तांडय गोत्र के तांडय, अंगिरा, मौद्गलय तीन प्रवर हैं।
(24) लौगाक्षि के लौगाक्षि, बृहस्पति, गौतम तीन प्रवर हैं।
(25) मौद्गल्य के मौद्गल्य, अंगिरा, बृहस्पति तीन प्रवर हैं।
(26) कण्व के आंगिरस, आजमीढ़, काण्व, या आंगिरस, घौर, काण्व तीन प्रवर हैं।
(27) धनंजय के विश्वामित्र, मधुच्छन्दस, धनंजय तीन प्रवर हैं।
(28) उपमन्यु के वसिष्ठ, इंद्रप्रमद, अभरद्वसु तीन प्रवर हैं।
(29) कौत्स के आंगिरस, मान्धाता, कौत्स तीन प्रवर हैं।
(30) अगस्त्य के अगस्त्य, दाढर्यच्युत, इधमवाह तीन प्रवर हैं। अथवा केवल अगस्त्यही।
इसके सिवाय और गोत्रों के प्रवर प्रवरदर्पण आदि से अथवा ब्राह्मणों की वंशावलियों से जाने जा सकते हैं।
आरूढपतितापत्यं ब्राह्मण्यां यश्चशूद्रज:।
सगोत्रोढासुतश्चैव चाण्डालास्त्रायईरिता:॥
‘संन्यासी का पुत्र, ब्राह्मणी स्त्री से शूद्र का पुत्र और समान गोत्र वाली कन्या से विवाह कर के जन्माया पुत्र, ये तीनों चाण्डाल कहाते हैं’ पर देखते हैं कि सभी देशों के ब्राह्मण आदि समाजों में ऐसा बहुधा होता है। यहाँ तक कि बहुतों को तो गोत्र का ज्ञान भी नहीं होता। प्रवर, शाखा आदि की बात ही दूर रहे। और विवाह गोत्र भिन्न रहने पर भी यदि प्रवरों की एकता हो जावे तो भी नहीं होना चाहिए।
गोत्र नाम है कुल, संतति, वंश, वर्ग का। यद्यपि पाणिनीय सूत्रों के अनुसार 'अपत्यं पौत्राप्रभृतिगोत्रम्' 4-1-162, पौत्रा आदि वंशजों को गोत्र कहते हैं। तथापि वह सिर्फ व्याकरण के लिए संकेत है। इसी प्रकार यद्यपि वंश या संतति को ही गोत्र कहते हैं तथापि विवाह आदि में जिस गोत्र का विचार है वह भी सांकेतिक ही है और सिर्फ विश्वामित्रा, जमदग्नि, भरद्वाज, गौतम, अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप और अगस्त्य, इन आठ ऋषियों या इनके वंशज ऋषियों की ही गोत्र संज्ञा है। जैसाकि बोधयन के महाप्रवराध्याय में लिखा है कि :
विश्वामित्रो जमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गौतम:।
अत्रिवर्सष्ठि: कश्यपइत्येतेसप्तर्षय:॥ सप्तानामृषी-
णामगस्त्याष्टमानां यदपत्यं तदोत्रामित्युच्यते॥
इस तरह आठ ऋषियों की वंश-परम्परा में जितने ऋषि (वेदमन्त्र द्रष्टा) आ गए वे सभी गोत्र कहलाते हैं। और आजकल ब्राह्मणों में जितने गोत्र मिलते हैं वह उन्हीं के अन्तर्गत है। सिर्फ भृगु, अंगिरा के वंशवाले ही उनके सिवाय और हैं जिन ऋषियों के नाम से भी गोत्र व्यवहार होता है। इस प्रकार कुल दस ऋषि मूल में है। इस प्रकार देखा जाता है कि इन दसों के वंशज ऋषि लाखों हो गए होंगे और उतने ही गोत्र भी होने चाहिए। तथापि इस समय भारत में तो उतने गोत्रों का पता है नहीं। प्राय: 80 या 100 गोत्र मिलते हैं।
जो गोत्र के नाम से ऋषि आए हैं वही प्रवर भी कहाते हैं। ऋषि का अर्थ है वेदों के मंत्रों को समाधि द्वारा जाननेवाला। इस प्रकार प्रवर का अर्थ हुआ कि उन मन्त्रद्रष्टा ऋषियों में जो श्रेष्ठ हो। प्रवर का एक और भी अर्थ है। यज्ञ के समय अधवर्यु या होता के द्वारा ऋषियों का नाम ले कर अग्नि की प्रार्थना की जाती है। उस प्रार्थना का अभिप्राय यह है कि जैसे अमुक-अमुक ऋषि लोग बड़े ही प्रतापी और योग्य थे। अतएव उनके हवन को देवताओं ने स्वीकार किया। उसी प्रकार, हे अग्निदेव, यह यजमान भी उन्हीं का वंशज होने के नाते हवन करने योग्य है। इस प्रकार जिन ऋषियों का नाम लिया जाता है वही प्रवर कहलाते हैं। यह प्रवर किसी गोत्र के एक, किसी के दो, किसी के तीन और किसी के पाँच तक होते हैं न तो चार प्रवर किसी गोत्र के होते हैं और न पाँच से अधिक। यही परम्परा चली आती हैं। पर, मालूम नहीं कि ऐसा नियम क्यों हैं? ऐसा ही आपस्तंब आदि का वचन लिखा है। हाँ, यह अवश्य है कि किसी ऋषि के मत से सभी गोत्रों के तीन प्रवर होते हैं। जैसा कि :
त्रीन्वृणीते मंत्राकृतोवृणीते॥ 7॥
अथैकेषामेकं वृणीते द्वौवृणीते त्रीन्वृणीते न चतुरोवृणीते न
पंचातिवृणीते॥ 8॥
जो दस गोत्र कर्ता ऋषि मूल में बताए गए हैं, उनके वंश का विस्तार बहुत हुआ और आगे चल कर जहाँ-जहाँ से एक-एक वंश की शाखा अलग होती गई वहाँ से उसी शाखा का नाम गण कहलाता है और उस शाखा के आदि ऋषि के नाम से ही वह गण बोला जाता है। इस प्रकार उन दस ऋषियों के सैकड़ों गण हो गए हैं और साधारणतया यह नियम है कि गणों के भीतर जितने गोत्र हैं न तो उनका अपने-अपने गण-भर में किसी दूसरे के साथ विवाह होता है और न एक मूल ऋषि के भीतर जितने गण हैं उनका भी परस्पर विवाह हो सकता है। क्योंकि सबका मूल ऋषि एक ही है। हाँ, भृगु और अंगिरा के जितने गण हैं उनमें हरेक का अपने गण के भीतर तो विवाह नहीं हो सकता पर, गण से बाहर दूसरे गण में तभी विवाह होगा जबकि दोनों के प्रवर एक न हो जावे। प्रवर एक होने का भी यह अर्थ नहीं कि दोनों के 3 या 5 जितने प्रवर हैं सब एक ही रहें। बल्कि यदि दोनों के तीन ही प्रवर हों और उनके दो ऋषि दोनों में हों तो यह प्रवर एक ही कहलाएगा। इसी प्रकार यदि पाँच प्रवर हों तो तीन के एक होने से ही एक होगा। सारांश, आधे से अधिक ऋषि यदि एक हों तो समान प्रवर हो जाने से विवाह नहीं होना चाहिए। जैसा कि बोधयन ने लिखा है :
द्वयार्षेयसन्निपातेऽविवाहस्त्रयार्षेयाणांत्रयार्षेयसन्निपातेऽविवाह:प×चार्षेयाणामसमानप्रवरैर्विवाह:॥
इसीलिए बोधयन आदि ने गोत्र का जो सांकेतिक अर्थ किया है उसमें भृगु और अंगिरा को न कह कर आठ ही को गिनाया है, नहीं तो जैसे अत्रि आदि के गणों में जहाँ तक एक गोत्र कर्ता ऋषि उनके किसी भी गोत्र के प्रवरों में विद्यमान रहे वह वास्तव में एक ही गोत्र कहलाते हैं, चाहे व्यवहार के लिए भिन्न ही क्यों न हों और चाहे उनके प्रवर तीन हों या पाँच। उसी प्रकार भृगु और अंगिरा के भी गणों के प्रवरों में सिर्फ एक ही ऋषि के समान होने से ही उनके तीन और पाँच प्रवरवाले गोत्रों का विवाह नहीं हो पाता। मगर अब हो सकता है। क्योंकि एक ऋषि की समानता का नियम सिर्फ आठ ही ऋषियों के लिए है, न कि भृगु और अंगिरा के लिए भी। जैसा कि -
एक एव ऋषिर्यावत्प्रवरेष्वनुवर्त्तते।
तावत्समानगोत्रत्वमन्यत्रांगिरसोभृगो:॥
भृगु और अंगिरा के वंशजों के जो गण है उसमें कुछ तो गोत्र के उन आठ ऋषियों के ही गण में आ गए हैं और कुछ अलग हैं। इस प्रकार भृगु और केवल भृगु एवं अंगिरा और केवल अंगिरा इस तरह के उनके दो-दो विभाग हो गए हैं। भृगु के 7 गणों में वत्स, विद और आर्ष्टिषेण ये तीन तो जमदग्नि के भीतर आ गए। शेष यस्क, मिवयुव, वैन्य और शुनक ये केवल भार्गव कहाते हैं। इसी प्रकार अंगिरा के गौतम, भारद्वाज और केवल आंगिरस ये तीन गण हैं। उनमें दो तो आठ के भीतर ही है। गौतम के 10 गण हैं, अयास्य, शरद्वन्त, कौमण्ड, दीर्घतमस, औशनस, करेणुपाल, रहूगण, सोमराजक, वामदेव, बृहदुक्थ। इसी प्रकार भारद्वाज के चार हैं, भारद्वाज, गर्ग, रौक्षायण, कपि। केवलांगिरस के पाँच हैं, हरित, कण्व, रथीतर, मुद्गल, विष्णुबृद्ध। इस तरह सिर्फ भृगु और अंगिरा के ही 23 गण हो गए। इससे स्पष्ट है कि भरद्वाज या भारद्वाज गोत्र का गर्ग या गार्ग्य के साथ विवाह नहीं हो सकता। क्योंकि उनका गण एक ही है।
अत्रि के चार गण हैं, पूर्वात्रोय, वाद्भुतक, गविष्ठिर, मुद्गल।
विश्वामित्र के दस हैं - कुशिक, रोहित, रौक्ष, कामकायन, अज्ञ, अघमर्षण, पूरण, इंद्रकौशिक, धनंजय, कत। धनंजय और कौशिक का परस्पर विवाह नहीं हो सकता।
कश्यप के पाँच हैं - कश्यप, निध्रुव, रेभ, शांडिल्य, लौगाक्षि। शांडिल्य, कश्यप, लौगाक्षि का परस्पर विवाह असंभव है।
वसिष्ठ के पाँच हैं - वसिष्ठ, कुंडिन, उपमन्यु, पराशर और जातूकर्ण्य। वसिष्ठ और पराशर आदि का परस्पर विवाह ठीक नहीं है।
अगस्त्य का कोई अन्तर्गण नहीं है। इस प्रकार कुल 51 गण हैं। किसी-किसी के मत से कुछ कम या अधिक भी है।
कोई-कोई गौत्र द्वयामुष्यायण कहलाते हैं, जैसे सांकृति या साकृत्य और लौगाक्षि आदि। इसका अर्थ यह है कि इन ऋषियों का सम्बन्ध दो गोत्रों से हैं। ये ऋषि किसी कारण से दोनों गोत्रों से सम्बन्ध रखते हैं, न कि एक छोड़ कर दूसरे से मिल गए। इसीलिए सांकृति का वसिष्ठ के साथ और लौगाक्षि का भी वसिष्ठ के साथ, एवं लौगाक्षि का और सांकृति का भी परस्पर विवाह नहीं होगा। क्योंकि लौगाक्षि और सांकृति दोनों वसिष्ठ गोत्र में गए और साथ ही, सांकृति का केवलांगिरस के गण में और लौगाक्षि का कश्यप के गण में जन्म हैं।
भरद्वाज, भारद्वाज, कश्यप, काश्यप, गर्ग, गार्ग्य, भृगु, भार्गव ये अलग-अलग गोत्र हैं, न कि कश्यप और काश्यप आदि एक ही है। परंतु विवाह तो फिर भी कश्यप काश्यप आदि का परस्पर नहीं हो सकता। कारण, मूल ऋषि एक ही हैं। इसी प्रकार यद्यपि भृगु के वंश में ही वत्स हुए, तथापि वत्सगोत्र अलग ही है। विश्वामित्र के प्रकरण में इंद्र कौशिक गोत्र है जो कौशिक से भिन्न ही है। इसी प्रकार धृत गोत्र भी उसी में हैं। मगर कहीं-कहीं सर्यूपारियों में धृत कौशिक को एक ही गोत्र मान कर व्यवहार करते हैं। यह भूल है। इसी प्रकार गर्दभीमुख नाम के एक ऋषि कश्यप के गण में हैं और शांडिल्य भी। पर इसका अर्थ न समझ लोगों ने गर्दभी मुख का कल्पित अर्थ कर डाला है और श्रीमुख नाम का एक दूसरा गोत्र भी मान रखा है। उनके विचार से शांडिल्य गोत्र के ही ये दो भेद हैं। मगर बात यह नहीं है। यह तो परस्पसर नीच-ऊँच के भावों का फल है। श्रीमुख कोई गोत्रकार ऋषि नहीं हैं। हाँ गर्दभीमुख है। पर शांडिल्य से भिन्न है। फिर भी, कश्यप के अन्तर्गत होने से दोनों का परस्पर विवाह नहीं हो सकता। कोई-कोई इंद्र और कौशिक ये दो गोत्र मानते हैं और धृत को घृत पढ़ते हैं। पाठ-भेद हो सकता है। पर, हरिवंश के सातवें अध्याय में धृत ही मिलता है और उनको धर्मभृत भी कहा है। इससे धृत पाठ ही अधिक माननीय है।
गोत्रों के प्रवर के सिवाय वेद, शाखा, सूत्र पाद, सिखा और देवता का भी विचार है। ऐसा संप्रदाय अभी तक बराबर चला आता है। इनमें से वेद का अभिप्राय यह है कि उस गोत्र का ऋषि ने उसी वेद के पठन-पाठन या प्रचार में विशेष ध्यान दिया और उस गोत्रवाले प्रधानतया उसी वेद का अध्ययन और उसमें कहे गए कर्मों का अनुष्ठान करते आए। इसीलिए किसी का गोत्र यजुर्वेद है तो किसी का सामवेद और किसी का ऋग्वेद है, तो किसी का अथर्ववेद। उत्तर के देशों में प्राय: साम और यजुर्वेद का ही प्रचार था। किसी-किसी का ही अथर्ववेद मिलता है। अब आगे चल कर लोग संपूर्णतया एक वेद भी पढ़ न सके, किंतु उसकी अनेक शाखाओं में से सिर्फ एक ही, तो फिर उन गोत्रों के लोगों ने शाखा का व्यवहार करना शुरू किया। सूत्रों का तो सिर्फ यही अर्थ हैं कि उन वेदों की उन-उन शाखाओं में कहे गए कर्मों की विधि और उनके अंगों के क्रम आदि के विचार के लिए ऋषियों ने जिन-जिन श्रौत या गृह्य सूत्रों का निर्माण किया है, उन्हीं के अनुसार विभिन्न गोत्रों की पद्धतियाँ तैयार की गई है और उन्हीं के अनुसार कर्म-कलाप होते हैं। हरेक वेदों के ये सूत्र विभिन्न ऋषियों द्वारा बनाए गए हैं। जैसे यजुर्वेद का कात्यायन ने बनाया है, सामवेद का गोभिल ने, ऋग्वेद का आश्वलायन ने और अथर्ववेद का कौशिक ने। और भी ऋषि हैं जिनके सूत्र वेदों की शाखाओं पर हैं। हरेक ऋषि ने अपनी ही शाखा का सूत्र ग्रन्थ बनाया है। हरेक वेद या उसकी शाखा के पढ़नेवाले किसी विशेष देवता की आराधना करते थे। वही उनके देवता कहे गए। इसी तरह तुरंत पहचान के लिए उनके बाहरी व्यवहार में भी कुछ अन्तर रखा जाता था। जैसे कोई शिखा में जो ग्रंथि देता वह बाईं तरफ घुमा कर और कोई दाहिनी तरफ। इसी प्रकार पूजा के समय प्रथम कोई बायाँ पाँव धोता या धुलाता था और कोई दाहिना। बस वही व्यवहार अब तक कहने मात्र को रह गया है और वही पाद कहलाता है। प्राय: यही नियम था कि सामवेदियों की बाईं शिखा और बायाँ ही पाद और विष्णु देवता हों। इसी प्रकार यजुर्वेदियों की दाहिनी शिखा, दाहिना पाद और शिव देवता। कहीं-कहीं शिखा और पाद में शायद उलट-पलट है। परंतु वह हमारे जानते काल पा कर भूल से बदल गया होगा। क्योंकि जब और बातों में नियम हैं तो यहाँ भी एक ही नियम लागू होना चाहिए। इसी तरह सामवेदियों की कौथुमी शाखा और गोभिल सूत्र एवं यजुर्वेदियों की माध्यंदिनीय शाखा और कात्यायन सूत्र हैं। चारों वेदों के चार उपवेद भी है और उनका भी व्यवहार पाया जाता है। यजुर्वेद का धानुर्वेद, ऋग्वेद का आयुर्वेद, सामवेद का गांधर्व वेद और अथर्ववेद का अर्थवेद वा अर्थशास्त्र है।
किस गोत्र का कौन वेद हैं, इसमें इस समय बड़ी गड़बड़ी है, कारण व्यवहार और संप्रदाय हर प्रदेश में कुछ न कुछ बदल गए हैं। कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों में पाँच गोत्रों का और कहीं-कहीं छह का सामवेद बताया है। वे पाँच कश्यप, काश्यप, वत्स, शांडिल्य और धनंजय हैं और छठां कौशिक हैं। परंतु इसके विपरीत मैथिलों में सिर्फ एक शांडिल्य का ही सामवेद लिखा है शेष गोत्रों का यजुर्वेद ही। हालाँकि उनकी एक वंशावली में, जो पिलखबाड़ ग्राम के पंजीकार श्री जयनाथ शर्मा की लिखी है, लिखा है कि :
कश्यपौ वत्सशांडिल्यौ कौशिकश्च धनंजय:।
षडेते सामगा विप्रा: शेषा वाजसनेयनि:॥
इससे पूर्व के छह गोत्र सामवेदी सिद्ध होते हैं। कान्यकुब्ज वंशावली में लिखते हैं कि पाँच ही सामवेदी हैं, कौशिक नहीं :
कश्यप: काश्यपो वत्स: शांडिल्यश्च धनंजय:।
पंचैते साम गायन्ति यजुरधयायिनोऽपरे॥
यह बात असंभव-सी भी मालूम होती है कि सिर्फ शांडिल्य ने ही सामवेद का प्रचार किया और दूसरे किसी भी ऋषि ने नहीं। इससे पाँच या छह गोत्रों का ही सामवेद मानना ठीक हैं। इसलिए त्यागी, पश्चिम, जमींदार या भूमिहार आदि अयाचक ब्राह्मणों में भी इसी के अनुसार संस्कार आदि और प्रचार होना चाहिए। गौड़, जिझौतिया वगैरह में भी इसी का प्रचार है।
आजकल एक गोत्र पाया जाता है जिसका उल्लेख पुराने ग्रन्थों में कहीं नहीं मिलता। वह है कविस्त, काविस्त अथवा कावित्स। अत्रि के एक गण के ऋषि का नाम गविष्ठिर है। संभव है इसी का विपर्याय हो गया हो। लेकिन प्रवर में भेद है।
प्रवरों के विषय में बड़ा मतभेद और वाद-विवाद है। एक प्रवर तो सिर्फ चार प्रचलित गोत्रों में है। वसिष्ठ का वासिष्ठ शुनक का शौनक, मित्रायुव का बाधय्रश्व और अगस्त्य का आगस्त्य। कश्यप का ही सिर्फ दो प्रवर है, देवल और असित। मगर इनके भी तीन प्रवर लिखे हैं। इसी प्रकार पाँच प्रवर गर्ग, सावर्णि, वत्स, भार्गव, भरद्वाज, भारद्वाज, जमदग्नि और गौतम के हैं। मगर तीन प्रवर भी इनके लिखे हैं। हरेक गोत्रों के प्रवरों की जितनी संख्या हो उतनी ग्रंथि जनेऊ में दी जाती है।
कुछ प्रसिद्ध गोत्रों के प्रवर आदि नीचे लिखे हैं :
(1) कश्यप,
(2) काश्यप के काश्यप, असित, देवल अथवा काश्यप, आवत्सार, नैधु्रव तीन प्रवर हैं। इस गोत्र के ब्राह्मण ये हैं - जैथरिया, किनवार, बरुवार, दन्सवार, मनेरिया, कुढ़नियाँ, नोनहुलिया, तटिहा, कोलहा, करेमुवा, भदैनी चौधरी, त्रिफला पांडे, परहापै, सहस्रामै, दीक्षित, जुझौतिया, बवनडीहा, मौवार, दघिअरे, मररें, सिरियार, धौलानी, डुमरैत, भूपाली आदि।
(3) पराशर के वसिष्ठ, शक्ति, पराशर तीन प्रवर हैं। इस गोत्र के ब्राह्मण एकसरिया, सहदौलिया, सुरगणे हस्तगामे आदि है।
(4) वसिष्ठ के वसिष्ठ, शक्ति, पराशर अथवा वसिष्ठ, भरद्वसु, इंद्र प्रमद ये तीन प्रवर हैं। ये ब्राह्मण कस्तुवार, डरवलिया, मार्जनी मिश्र आदि हैं। कोई वसिष्ठ, अत्रि, संस्कृति प्रवर मानते हैं।
(5) शांडिल्य के शांडिल्य, असित, देवल तीन प्रवर हैं। दिघवैत, कुसुमी-तिवारी, नैनजोरा, रमैयापांडे, कोदरिए, अनरिए, कोराँचे, चिकसौरिया, करमहे, ब्रह्मपुरिए, पहितीपुर पांडे, बटाने, सिहोगिया आदि इस गोत्र के ब्राह्मण हैं।
(6) भरद्वाज,
(7) भारद्वाज के आंगिरस, बार्हस्पत्य, भारद्वाज अथवा आंगिरस, गार्ग्य, शैन्य तीन प्रवर हैं। दुमटिकार, जठरवार, हीरापुरी पांडे, बेलौंचे, अमवरिया, चकवार, सोनपखरिया, मचैयांपांडे, मनछिया आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।
(8) गर्ग।
(9) गार्ग्य के आंगिरस, गार्ग्य, शैन्य तीन अथवा धृत, कौशिक मांडव्य, अथर्व, वैशंपायन पाँच प्रवर हैं। मामखोर के शुक्ल, बसमैत, नगवाशुक्ल, गर्ग आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।
(10) सावर्ण्य के भार्गव, च्यवन, आप्नवान, और्व, जामदग्न्य पाँच, या सावर्ण्य, पुलस्त्य, पुलह तीन प्रवर हैं। पनचोभे, सवर्णियाँ, टिकरा पांडे, अरापै बेमुवार आदि इस गोत्र के हैं।
(11) वत्स के भार्गव, च्यवन, आप्नवान, और्व, जामदग्न्य पाँच, या भार्गव, च्यवन, आप्नवान तीन प्रवर हैं। दोनवार, गानामिश्र, सोनभदरिया, बगौछिया, जलैवार, शमसेरिया, हथौरिया, गगटिकैत आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।
(12) गौतम के आंगिरस बार्हिस्पत्य, भारद्वाज या अंगिरा, वसिष्ठ, गार्हपत्य, तीन, या अंगिरा, उतथ्य, गौतम, उशिज, कक्षीवान पाँच प्रवर हैं। पिपरामिश्र, गौतमिया, करमाई, सुरौरे, बड़रमियाँ दात्यायन, वात्स्यायन आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।
(13) भार्गव के भार्गव, च्यवन, आप्नवान, तीन या भार्गव, च्यवन आप्नवन, और्व, जायदग्न्य, पाँच प्रवर हैं, भृगुवंश, असरिया, कोठहा आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।
(14) सांकृति के सांकृति, सांख्यायन, किल, या शक्ति, गौरुवीत, संस्कृति या आंगिरस, गौरुवीत, संस्कृति तीन प्रवर हैं। सकरवार, मलैयांपांडे फतूहाबादी मिश्र आदि इन गोत्र के ब्राह्मण हैं।
(15) कौशिक के कौशिक, अत्रि, जमदग्नि, या विश्वामित्रा, अघमर्षण, कौशिक तीन प्रवर हैं। कुसौझिया, टेकार के पांडे, नेकतीवार आदि इस गोत्र के ब्राह्मण हैं।
(16) कात्यायन के कात्यायन, विश्वामित्र, किल या कात्यायन, विष्णु, अंगिरा तीन प्रवर हैं। वदर्का मिश्र, लमगोड़िया तिवारी, श्रीकांतपुर के पांडे आदि इस गोत्र के ब्राह्मण हैं।
(17) विष्णुवृद्ध के अंगिरा, त्रासदस्यु, पुरुकुत्स तीन प्रवर हैं। इस गोत्र के कुथवैत आदि ब्राह्मण हैं।
(18) आत्रेय।
(19) कृष्णात्रेय के आत्रेय, आर्चनानस, श्यावाश्व तीन प्रवर हैं। मैरियापांडे, पूले, इनरवार इस गोत्र के ब्राह्मण हैं।
(20) कौंडिन्य के आस्तीक, कौशिक, कौंडिन्य या मैत्रावरुण वासिष्ठ, कौंडिन्य तीन प्रवर हैं। इनका अथर्ववेद भी है। अथर्व विजलपुरिया आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।
(21) मौनस के मौनस, भार्गव, वीतहव्य (वेधास) तीन प्रवर हैं।
(22) कपिल के अंगिरा, भारद्वाज, कपिल तीन प्रवर हैं।
इस गोत्र के ब्राह्मण जसरायन आदि हैं।
(23) तांडय गोत्र के तांडय, अंगिरा, मौद्गलय तीन प्रवर हैं।
(24) लौगाक्षि के लौगाक्षि, बृहस्पति, गौतम तीन प्रवर हैं।
(25) मौद्गल्य के मौद्गल्य, अंगिरा, बृहस्पति तीन प्रवर हैं।
(26) कण्व के आंगिरस, आजमीढ़, काण्व, या आंगिरस, घौर, काण्व तीन प्रवर हैं।
(27) धनंजय के विश्वामित्र, मधुच्छन्दस, धनंजय तीन प्रवर हैं।
(28) उपमन्यु के वसिष्ठ, इंद्रप्रमद, अभरद्वसु तीन प्रवर हैं।
(29) कौत्स के आंगिरस, मान्धाता, कौत्स तीन प्रवर हैं।
(30) अगस्त्य के अगस्त्य, दाढर्यच्युत, इधमवाह तीन प्रवर हैं। अथवा केवल अगस्त्यही।
इसके सिवाय और गोत्रों के प्रवर प्रवरदर्पण आदि से अथवा ब्राह्मणों की वंशावलियों से जाने जा सकते हैं।
बहुत अच्छा लिखा आपने
जवाब देंहटाएंPlease tell me about pindi tiwari
जवाब देंहटाएंपीडी. पिन्डि अलग अलग है की ऐक है
जवाब देंहटाएंSemari rathvarg ke bare me vatayen
जवाब देंहटाएंSemari rathvarg Tiwari ke bare men vatayen
जवाब देंहटाएंMujhe please nadauli tiwari ke baare me bataye ki ye 3 ghar ke brahman hai ya 13 ghar ke brahman hai aur inki sikha kya hai ar kis sakha ke hai ye
जवाब देंहटाएंMere liy yah janna bhut awasyak hai kripya jldi bataye sir
जवाब देंहटाएंक्या श्रीमुख और गर्द मुख के बीच आपस में विवाह हो सकता है??
जवाब देंहटाएंShandilya gotra ke pahila ke ghar Tiwari ke bare me batane ka kast kare plz
जवाब देंहटाएंरनहोला तिवारी
हटाएंरनहोला शाण्डिल्य तिवारी के बारे जानकारी नहीं ह्
जवाब देंहटाएंHarina tiwari vashistha gotra ke bare me bataye
जवाब देंहटाएंMujhe hathiyaparaas Tiwari ke vishay mein jankari
जवाब देंहटाएंThe casino that gave the city the green light to open new casino
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Saryuparin Sandilya gotra ke aur mithila ke sandilya gotra ke logo ke vansh mei kya antar hai? Jaise agar dono ke mool rishi Kashyap ho hue aur dono sandilya hi hain toh vibhaajan kaise hua? Thodi aur detail mei jankari dein
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